क्षुल्लक पूर्ण सागर जी जब 1980 में दीक्षोपरांत अपने गुरुवर की छत्रछाया में साधना अध्ययनरत थे, उनकी आगमिक चर्या, अध्ययनशीलता, गंभीरता, विरक्ति आदि गुणों से जैन श्रावक ही नहीं अपितु अजैन श्रावक भी प्रभावित होते थे। एक बार उनके पास एक अजैन विद्वान आने लगे,पर वे क्षुल्लक जी को कभी नमस्कार नहीं करते थे। एक दिन उनको क्षुल्लक जी की परीक्षा का मौका मिल गया, वे बोले- ये साधना कठिन है, इतना कठिन त्याग इतनी छोटी उम्र में संभव नहीं हो सकेगा। कुछ आपके साथ व्यवस्था खाने-पीने की भी नहीं, रुपया रखते नहीं कैसे कटेगी इतनी बड़ी जिंदगी। क्षुल्लक जी समझ गये ये परीक्षा की घड़ीया है अत: उन्होंने भी बड़े उत्साह के साथ उत्तर देना शुरू किया- कि महाशय जी, ये मोक्ष मार्ग है कोई सामान्य नहीं, साधना कठिन जरूर है पर यदि वैराग्य भाव हो तो सब सरल हो जाता है,त्याग वैराग्यपूर्वक और वैराग्य ज्ञान पूर्वक होता है अतः साधना के लिए व्यवस्था की नहीं, ज्ञान की आवश्यकता होती है। व्यवस्था तो पुण्य पर निर्भर है साधु व्यवस्था के पीछे नहीं, व्यवस्थाएं साधु की पीछे चलती है। जहां निजस्वरुप की प्राप्ति का लक्ष्य हो वहां रुपयों का का क्या काम। ऐसी साधना में एक जिंदगी क्या,भव-भव आसानी से निकल सकते हैं।
क्षुल्लक जी का वैराग्यज्ञान से पूर्ण उत्तरों को सुनकर उन विद्वान का सिर उनके आगे सहजता श्रद्धा से झुक गया। और क्षुल्लक जी परीक्षा में पास ही नहीं हुए बल्कि उन्होंने पाई First Division and First Position.
गुरु जीवन (मम) जीवंत आदर्श,
शिक्षाओं - घटनाओं का सर्ग ।
मेरे जीवन का यही विमर्श,
दुनिया को कराऊँ उनका दर्श ।।
( घटनायें , ये जीवन की पुस्तक से लिए गए अंश )