1980 में दीक्षा के पश्चात बुढार से अकलतरा के विहार में अचानक मार्ग के अभयारण्य के रास्ते में लगभग 50 कदम की दूरी पर, सम्मुख ही पांच जंगली भैंसे दौड़े आ रहे थे, चूँकि क्षुल्लक जी ने प्रथम बार देखा था तो पालतू भैंसे ही समझ रहे थे, पर पूज्य आचार्य श्री की पैनीदृष्टि ने उनकी आंखों से पढ़ लिया कि ये जंगली भैंसे है अत: उसी समय कहा- पूर्णसागर नियम सल्लेखना का व्रत लो तो भोले-भाले क्षुल्लक जी ने कहा यह क्या होता है तो पूज्य आचार्य श्री ने कहा- चारों प्रकार का आहार का त्याग कर दो, उन्होंने कहा ठीक तथा धैर्यता का पाठ-सिखाते हुए कहा- घबराना नहीं, क्योंकि क्षुल्लक जी नए दीक्षित थे, पर वे तो अपूर्व साहसी थे। पूज्य आचार्य श्री ने कहा- आत्मा, धर्म की उत्तम शरण लो, णमोकार का जाप करते चलो, यही आध्यात्मिक वीरता- पराक्रम के क्षण है तो उन्होंने कहा- हम वीर, मार्ग से पीछे नहीं हटते। जो एक व्यक्ति था वह भी अपनी साइकिल से पीछे के पीछे खिसक गया । एक व्यक्ति था उसने कहा आप लोग पेड़ पर चढ़ जाओ । और बड़ा आश्चर्य कहें, पूज्य आचार्य श्री की तपस्या का, पुण्य का प्रताप की वे भैंसे चौकड़ी दौड़ से रोड से नीचे उतरकर संघ की ओर देख रहे थे। पूज्य आचार्य श्री ने पुनः सावधान किया की ये पीछे से भी वार कर सकते हैं। पर वे तो जंगल की ओर बढ़ते गए पर रुक-रुक कर पीछे मुड़कर देखते रहे। तभी से क्षुल्लक जी को एक नया पाठ अपने पूज्य गुरुवर से मिला की संघर्ष-विपत्ति में घबराना नहीं चाहिए । वीरता से सामना करना चाहिए । उनका यह पाठ उन्हे आज तक याद है वे हमेशा विपत्ति में उसे याद रखते हैं।
गुरु जीवन (मम) जीवंत आदर्श,
शिक्षाओं - घटनाओं का सर्ग ।
मेरे जीवन का यही विमर्श,
दुनिया को कराऊँ उनका दर्श ।।
( घटनायें , ये जीवन की पुस्तक से लिए गए अंश )