मुक्ति-पथ पर चलने वाले पथिक का संयम, वैराग्य और ज्ञान ही पाथेय होता है। उस वैराग्य रूपी पाथेय को हृदय रूपी पोटली में बांधकर अरविंद चल दिए मुक्ति मंजिल की ओर।
ग्राम बुढार जिला-शहडोल सन् 1980 में वेश आया क्षुल्लक पूर्ण सागर का। अब समय का वैराग्य की परीक्षा देने का। प्रथम प्रश्न पत्र के रूप में पिताजी आ पहुंचे बोले- चल बेटा,घर चल, तेरी मां बहुत रोती है, तेरी याद में। तेरे वियोग में बीमार हो गई है। वैरागी क्षुल्लक जी बोले-पिताजी! मैं कोई डॉक्टर नहीं हूं जो मेरे जाने से मां ठीक हो जाएगी, वह मेरी याद में नहीं अपितु अपने मोह से रोती है। ऐसी तो मेरी अनेक भवो में अनेक माताएं हुई हैं उन्हीं को देखा तभी तो संसार में हूं परंतु अब मैं उधम करूंगा, मुक्ति पथ पर चलकर मुक्ति मंजिल को पाने का।
प्रथम परीक्षा में तो क्षुल्लक जी ने पूरे अंक प्राप्त किये अर्थात पिताजी को निरुत्तर कर दिया। द्वितीय प्रश्न-पत्र का समय आया अब की बार के प्रश्न पत्र का नमूना अलग था अबकी बार क्षुल्लक जी के पास फूफा जी आए पैसों से भरा सूटकेस लेकर, एकांत में क्षुल्लक जी को ले जाकर बोले-बेटा, देख यह रुपयों से भरा सूटकेस तेरे लिए है तू घर चल मैं तेरी सारी व्यवस्था बनाऊंगा। क्षुल्लक जी मुस्कुराये और बोले- अरे, इससे भी बहुमूल्य तीन-तीन रत्न मेरे पास है फिर इन नोटों का क्या मूल्य? एक ही क्या, नोटों से भरे आपके अनेक सूटकेस भी मेरे रत्न की कीमत नहीं चुका सकते। इस दूसरे प्रश्न पत्र में भी क्षुल्लक जी अव्वल नंबर पर रहे। यह है अकाट्य श्रद्धा वह दृढ़ता जिसने अरविंद को मुक्ति पथ का अध्येता, महान साधक बना दिया।
गुरु जीवन (मम) जीवंत आदर्श,
शिक्षाओं - घटनाओं का सर्ग ।
मेरे जीवन का यही विमर्श,
दुनिया को कराऊँ उनका दर्श ।।
( घटनायें , ये जीवन की पुस्तक से लिए गए अंश )