1983 में टी.बी. के रोग से मुक्त होकर क्षुल्लक जी ने तीर्थराज सिद्धक्षेत्र सम्मेद शिखर की पुनीत यात्रा हेतु बड़े उत्साह के साथ, मन में नई-नई उमंगों, भक्ति भाव के साथ पहाड़ पर प्रयाण किया।अस्वस्थयता होने पर भी आत्मसाहस उनका अपूर्व था क्यों ना हो क्योंकि वे वहां है जहां से उन्हें उन अनंत सिद्ध-भगवंतो की तरह निजस्वरूप की प्राप्ति करनी है। शनै:-शनै: सकलकर्मक्षयारथ की भावना,मन में संजोये पूरी वंदना हो गई और लौटते-लौटते सायं 4 बज गये। तभी श्रावकों ने कहा-महाराज शीघ्रता से शुद्धि करें और आहारारथ उठे। वे आहारारथ उठे-पर शुरू में ही कर्म रूपी चोर बालचंद के रूप में आ गये, एक तो कमजोरी, वंदना की थकान और प्रारंभ में अंतराय, सभी श्रावक बड़े दुखित हुए।पर क्षुल्लक जी के मुखमंडल से समता ही बरस रही थी। जैसे ही यह समाचार वहां स्तिथ आर्यिका सुपाश्वमति माताजी को ज्ञात हुआ तो श्रावक को बहुत फटकारा। और दूसरे दिन स्वयं आहार की व्यवस्था बनवाकर अपनी संघस्थ आर्यिका इलायचीमति माता जी के साथ आहार के शोधनार्थ गई उन्होंने एक वात्सल्यमयी मां की तरह क्षुल्लक जी का पूर्ण आहार करवाया।
सच जहां सरलता,सहजा ,विनय भावना होती है वहां सारे लोग अपने बन जाते हैं।
गुरु जीवन (मम) जीवंत आदर्श,
शिक्षाओं - घटनाओं का सर्ग ।
मेरे जीवन का यही विमर्श,
दुनिया को कराऊँ उनका दर्श ।।
( घटनायें , ये जीवन की पुस्तक से लिए गए अंश )