एक बार सन 1973 में अरविन्द की माँ का स्वास्थ्य अधिक ख़राब हो गया । अत: इलाज हेतु उन्हें पथरिया से बाहर ले जाना पड़ा । जाते समय पिता जी ने हिदायत दी की किसी से कुछ भी माँगना नहीं। अत : यदि उन्हें कोई कुछ देता , तो भी वह मना कर देते - आखिर पिता जी सिख जो देकर आये थे । जैसा भी कच्चा-पक्का भोजन बनता था वही चारो भाई - बहिनो को वे स्वयं बनाकर खिलाते थे । किन्तु किसी का दिया स्वीकार नहीं करते ।
एक बार सभी ने मिलकर भजिए बनाने की योजना बनाई , बस फिर क्या ? बेसन डाला तो गाढ़ा हो गया , अब छोटे भाई साहब तुनक कर बोले - चलो , मुझे दो मैं बेसन ठीक प्रकार से घोलता हूँ । उधर सभी भूख से व्याकुल हो रहे थे । पर यह क्या ? बेसन में थोड़ा पानी डालना था किन्तु पूरा पानी का बर्तन ही उसमे गिर गया । अब तो बेसन भी नहीं बचा था जो उसे गाढ़ा करते । बस फिर तो उसी घोल के भजिये बने । वो कच्चे-पक्के भजिये सभी ने बड़े चाव से खाये , किन्तु यह क्या , थोड़ी ही देर में किसी को पेट दर्द तो किसी को दस्त और लोगो का उपहास अलग । अत: इस घटना को देखकर अब भजिये नहीं बनायेँगे ऐसा उन्होंने संकल्प ले लिया ।
स्वाभिमान के कारण कच्चा-पक्का खाना स्वीकार किया किन्तु दुसरो का दिया नहीं ऐसे स्वाभिमानी थे अरविन्द ।
गुरु जीवन (मम) जीवंत आदर्श,
शिक्षाओं - घटनाओं का सर्ग ।
मेरे जीवन का यही विमर्श,
दुनिया को कराऊँ उनका दर्श ।।
( घटनायें , ये जीवन की पुस्तक से लिए गए अंश )