पूत के पाँव (लक्षण) पलने में नजर आने लगते है ये कहावत पूर्ण रूपेण अरविन्द पर चरितार्थ होती है । वे बचपन से ही उदासीन थे । गृहकार्यो में , दुकानदारी में मन ही नहीं लगता था । पथरिया सन १९७३ में जब वे दुकान पर उदासीन भाव से बैठते थे । उनकी किराने की दुकान थी , जब कोई गाय आदि दुकान में घुसकर अनाज आदि खाने लगती तो, वे उसे भगाने की बजाय, वीतराग भाव से देखते और उसे खाने का पूरा मौका देते । सोचते , पता नहीं कितनी भूखी होगी , कब से नहीं खाया होगा । दयालु हृदय उसे पानी भी पीने को रख देते । यँहा तक दुकान पर यदि कोई ग्राहक आता तो बेचे गये सामान के पैसे भी नहीं माँगते, स्वेच्छा से दे गया तो ठीक है, अन्यथा परवाह नहीं, नहीं देने वाले की मज़बूरी को विचारते कि बेचारा गरीब है , पैसे कँहा से देगा ? हमेशा चिंतन में खोये रहते कि इन सारे दुखी जीवों का दुख कैसे दूर होगा । काश ! मेरे पास वो शक्ति आ जाये जो हर किसी का दुःख दूर कर उन्हें सुख से भर दूँ ।
करुणा की पवित्र मूर्ति की वही दया आज विराट रूप में हमारे समक्ष विद्यमान है । जो दिगम्बर मुद्रा का बाना धारण कर अनुभव में रत रहते है तथा अनेक भव्यों के सहारे, शिष्यों के प्रिय आदर्श , जन-जन प्रभावक संत परम पूज्य गणाचार्य श्री विराग सागर जी महाराज के नाम से जगत विख्यात है ।
गुरु जीवन (मम) जीवंत आदर्श,
शिक्षाओं - घटनाओं का सर्ग ।
मेरे जीवन का यही विमर्श,
दुनिया को कराऊँ उनका दर्श ।।
( घटनायें , ये जीवन की पुस्तक से लिए गए अंश )