गुरुवर विराग सागर जी के बचपन की एक बात है । लगभग सन १९६७ की , जब टिन्नू जी चार वर्ष के हो गये । जो भी उन्हें देखता तो कपूरचंद जी से कहता - सेठ जी ! अब बाल मंदिर में दाखला करा दो, पर माता-पिता को पता ही नहीं की हमारा टिन्नू पढ़ने लायक हो गया, उन्हें तो घुमक्कड़ टिन्नू भैया छोटे ही दीखते है । एक दिन बाल मंदिर के शिक्षक उनके घर के यंहा से होते हुए निकले, टिन्नू को उस समय फोड़ा हो गया था , तो बोले- क्यों टिन्नू फोड़ा ठीक हो गया ? हाँ अब क्या करोगे ?
टिन्नू - पढ़ने जाऊंगा स्कूल ।
शिक्षक - अच्छा, फिर क्या बनोगे ?
टिन्नू - गाँधी जी बनूँगा , हाथ में लाठी लूँगा ।
शिक्षक - क्यों , लाठी क्यों लोगे ?
नन्हा टिन्नू उत्तर न दे सका, बस हँस कर रह गया । शिक्षक कुछ सोच में पड़ गये । वे सोच नहीं पाये थे की जिस गाँधी की लाठी ने देश से अंग्रेजो को बाहर निकाला था उसी प्रकार यह टिन्नू भी बड़ा होकर अपने लाठी अर्थात तपस्या /साधना के बल से आत्मा में घुसे हुए कर्म रूपी शत्रुओ को बाहर निकालेगा ।
सच, बचपन के सामान्य संस्कारों का उदय जीवन को महान संस्कार प्रदान करता है ।
गुरु जीवन (मम) जीवंत आदर्श,
शिक्षाओं - घटनाओं का सर्ग ।
मेरे जीवन का यही विमर्श,
दुनिया को कराऊँ उनका दर्श ।।
( घटनायें , ये जीवन की पुस्तक से लिए गए अंश )