पूज्य गुरुवर थे जब मुनि अवस्था में , तब उनके साथ मुनि सिद्धान्त सागर जी भी थे, सन् 1985 में जब पूज्य मुनि श्री का विहार चल रहा था नावा की ओर तब वहाँ विराजे थे परम पूज्य आचार्य श्री 108 धर्म सागर जी महाराज। जब उन्हें मुनि द्वय के आगमन की सूचना प्राप्त हुई, तब पूज्य आचार्य श्री ने सम्पूर्ण संघ व समाज के लोगों को धूमधाम से मुनि द्वय की आगवानी हेतु आज्ञा प्रदान की, आचार्य श्री की आज्ञा पाते ही चल दिये सब गाजे-बाजे के साथ।
तभी कौतुक वश एक श्रावक ने एक महाराज जी से पूछा महाराज श्री, आखिर मुनि विराग सागर जी में ऐसी क्या विशेषता है जो सारा समूह उन्हें लेने जा रहा है? तब संघस्थ लोगों ने मुनि श्री की विशेषता बताते हुए कहा - \"वे गुरु आज्ञा पालन करने में तत्पर, आगम-निष्ठ साधक हैं उनकी प्रत्येक क्रिया /चर्या आगमानुकूल हैं, वे एकल विहारी नहीं हैं, आहार चर्या बहुत अच्छी है, चन्दा चिट्ठा से दूर रहते हैं, न ही उनके पास अनुचित परिग्रह-गाड़ी, फोन आदि नहीं हैं, भौतिक चकाचौंध से दूर हैं, सदैव आत्मप्रभावना में ही रत रहते हैं, षडावश्यकों के पालन में निरत रहते हैं, शक्त्यानुसार तप करते हैं।\" पूज्य गुरुवर (आचार्य धर्म सागर जी महाराज) ने हमें उनकी ये विशेषताएं समय-समय पर बताई थी और गुरुवर की आज्ञा से ही हम उनकी आगवानी करने जा रहे हैं।
मिलन का दृश्य अद्भुत था, मात्र शरीर ही नहीं हृदय से हदय मिल रहे थे तथा दे रहे थे धार्मिक वात्सल्य का परिचय, मुनि श्री जब पूज्य गुरुवर के पास पहुंचे तो आचार्य श्री बहुत ही प्रसन्न हुए, रत्नत्रय व स्वास्थ्य आदि पूछा तथा संघ में रुकने की उचित व्यवस्था भी कर दी, आचार्य श्री मुनि का हर प्रकार से ध्यान रखते थे तथा हार्दिक धार्मिक वात्सल्य भी देते थे।
पूज्य आचार्य श्री इसी तरह अपने साधना काल में पूज्य आचार्य श्री समन्तभद्र सागर जी, आचार्य श्री सुबुद्धि सागर जी, आचार्य श्री सुमति सागर जी, आचार्य कल्प श्री विवेक सागर जी, आचार्य कल्प श्री श्रुत सागर जी, गणधराचार्य श्री कुन्थु सागर जी, आचार्य श्री वीर सागर जी आदि कई संघों से मिले तथा हर जगह से बड़े आचार्यों के अनुभव व चिंतन के खजाने व उनके वात्सल्य एवं आशीष को प्राप्त करते रहे तथा अपने विनय, सरलता, निश्छलता आदि विशिष्ट गुणों से सर्वत्र आदर को पाया है। आज भी पूज्य गुरुवर समय-समय पर पुराने आचार्यों के अनुभव, शिक्षाओं को स्मरण करते हैं। गुणों के पिण्ड गुरुवर का यह भी एक महान गुण है कि वे गुणवानों के विनय-सम्मान में रहते हैं तत्पर।
धन्य है पुज्य मुनि श्री की आगम-निष्ठ पवित्र चर्या, जिसके माध्यम से सहज ही वे पाते थे सबके हृदयों में स्थान । मुनि अवस्था में ही जिनकी चर्या प्रबल प्रभावना का हेतु बनी ऐसे पूज्य गुरुवर का शिष्यत्व पाकर अहोभाग्य मानते हैं हम शिष्य ।