गुरुवर जी जब थे मुनि अवस्था में उस समय साथ में थे मुनि सिद्धांत सागर जी । सन् 1984 में दोनों मुनिराज पालीताना के पहाड पर स्थित वीतराग जिनेन्द्र देव के दर्शन हेतु मंदिर जी प्रात: कालीन बेला में चल दिये, भीषण कड़कती ठंड पढ रही थी, छोटी सी उम्र के नव दीक्षित मुनिदय को देखकर सभी को प्रसन्नता के साथ हो रहा था आश्चर्य कि इन्होंने इतनी अल्पवय मैं कैसे इतनी कठोर तपस्या को अंगीकार कर लिया, घर में रहते बाद में दीक्षा ले लेते आदि चर्चाएं चल रही थी।
तभी वहाँ में कु श्वेताम्बर साधु निकले उन्होंने मुनि दय के प्रति वात्सल्य भाव प्रकट किया तथा उन्हें रोककर पूछा- अपने इतनो अल्प वय में इतनी कठोर दिगम्बरी तपस्या कैसे धारण कर ली, आपको का होता होगा? जब मुनि श्री विराग सागर जी बोले- अरे कष्ट नहीं, अपितु आनंद ही आनंद आता है, तब साथ बोले- नहीं, यह मार्ग दुस्साध्य और दुरसअ है, जिसमें अंगारों पर चलना पढ़ता है, अपने प्राणों को हाथ में लेना पता है, दांतों से लोहे के चने पता है, बड़ी-बड़ी कठिनाइयों को सहन करना पडता है। मुनि श्री ने कहा- यह सत्य है, परंतु कष्ट असाध्य तब लगता है जय वैराग्य सही नहीं होता, अंतरंग से मोह-ममता समान हो जाए तो सब मान लगता है। वह श्वेतांबर साधु मुनि ी केराम्य युका नो को सुन कर मत प्राप्त हुए तथा बोले- आपने ठीक कहा सच्ची विरकि होने पर संयम भार तुल्य लगता है।
मुनि श्री ने जैसे ही उनके पैरों पर लगी पट्टियों को देखा तो पूछा यह क्या है। उन्होंने कहा- सुबह ठंडी के मौसम में विहार करते समय कंकड़-पत्थर चुभते है.दर्द तकलीफ होती है इसलिए कपडा बांधकर चलते हैं. लेकिन आज आप लोगों का सच्चा त्याग देखकर पट्टी बांधने का त्याग करता हूँ। और पट्टी निकालकर फेक दी | मुनि श्री ने पुनः पूछा तो क्या अब कभी पैरों में पट्टी नहीं पहनोगे। उन्होंने दृढ़ता पूर्वक उत्तर दिया- नहीं, जब आप सहन करते है तो मैं भी सहन करूँगा और कभी पट्टी नहीं पहनूंगा।
वैरागी साधक की चर्या
साहस खूब दिलाती है
जन-जन को आकर्षित करती है
शिवपथ पर चलाती है
निर्बल भी साहसी बन जाते
अतिशय ऐसाा लाती है
कंकड पत्थर की राहों पर
विराग सुमन खिलाती है
गुरु जीवन (मम) जीवंत आदर्श,
शिक्षाओं - घटनाओं का सर्ग ।
मेरे जीवन का यही विमर्श,
दुनिया को कराऊँ उनका दर्श ।।
( घटनायें , ये जीवन की पुस्तक से लिए गए अंश )